
तहतक न्यूज/रायगढ, छत्तीसगढ़।
सन 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा लगाये गये आपातकाल को लेकर पूरे देश की राजनैतिक गलियारों में तरह-तरह की चर्चाएं हो रही हैं। आपातकाल को आज 25 जून को 50 साल पूरे होने पर भाजपा जहाँ इसे काला अध्याय कहते हुए संविधान हत्या दिवस मना रही है और जनता को कांग्रेस के काले इतिहास की चिट्ठे खोल रही है, वहीं कांग्रेस आपातकाल की अच्छाइयों को समझा रही है।

आपातकाल पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जिला कांग्रेस अध्यक्ष अनिल शुक्ला ने उसे सही ठहराया है। उन्होंने कहा कि उस दौर में आपातकाल को लगाया जाना सामायिक आवश्यकता थी, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आपातकाल के दौरान के कई ऐसे महत्वपूर्ण सकारात्मक पहलू भी रहे थे जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए । वहीं आपातकाल को आज की सत्तारूढ़ पार्टी अवाम के बीच गलत नजरिये से प्रस्तुत करती आ रही है । अनिल शुक्ला ने कहा कि आज के दौर में सत्ताधारी पार्टी के पास देश के आंतरिक हालातों से निपटने की कोई योजना नहीं है व बीजेपी वालों को आपातकाल के दौरान की अच्छाइयों को देखने का नजरिया नहीं है।उन्हें सिर्फ झूठ फैलाने में ही महारत हासिल हैं।
अनिल शुक्ला के अनुसार 1975 के आपातकाल के समय तात्कालीन कांग्रेस सरकार के द्वारा जो अच्छे कार्य रहे वे हैं
आर्थिक सुधार
- आर्थिक अनुशासन – आपातकाल के दौरान आर्थिक अनुशासन को बढ़ावा दिया गया, जिससे अर्थव्यवस्था में स्थिरता आई।
- उत्पादकता में वृद्धि – आपातकाल के दौरान श्रमिकों की उत्पादकता में वृद्धि हुई, जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिला।
सामाजिक सुधार
1.शहरीकरण और स्वच्छता – आपातकाल के दौरान शहरीकरण और स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया गया, जिससे शहरों की स्थिति में सुधार हुआ। - शिक्षा और स्वास्थ्य – आपातकाल के दौरान शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ, जिससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया।
- प्रशासनिक सुधार – आपातकाल के दौरान प्रशासनिक सुधार किए गए, जिससे सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ी।
- भ्रष्टाचार में कमी – आपातकाल के दौरान भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई, जिससे सरकारी कामकाज में भ्रष्टाचार में कमी आई।
अन्य अच्छाइयां
राष्ट्रीय एकता – आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया गया, जिससे देश में एकता और अखंडता की भावना मजबूत हुई।
आधुनिकीकरण – आपातकाल के दौरान आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया गया, जिससे देश में तकनीकी और आर्थिक विकास हुआ। अनिल शुक्ला ने स्थानीय विधायक व केबिनेट मंत्री ओमप्रकाश चौधरी जी के आपयकाल के वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आप पूर्व प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ ही मोटीवेशनल गुरु भी हैं और आप अच्छे से जानते हैं कि गिलास आधा भरा हो तो लोग उसे 2 तरह से परिभाषित करते हैं, जो उनके नजरिये को दर्शाता है। मेरा मानना भी आपके लिए यही है कि आप चीजों को अपने जिस चश्मे से देख रहे हैं अगर आपने आपातकाल के दूसरे सकारात्मक पहलुओं को भी ध्यान दिया होता तो इसे बहस का मुद्दा न बनाते। अनिल शुक्ला ने कहा कि इस दौर में चल रहे नियमित आफतकाल से बेहतर था सीमित आपातकाल।आज पूरे देश में ईडी सीबीआई जैसे संस्थाओं के दुरुपयोग से सताए लोगों की पीड़ा किसी नियमित आफतकाल से कम नहीं है। देश में बिगड़ रही कानून व्यवस्था महिला उत्पीड़न की घटनाओं पर काबू न पाया जाना गरीबों पर हो रहे अत्याचार बेरोजगारों की अनदेखी करना ये काल आफतकाल है जो अघोषित आपातकाल से भयानक है जिसमे सत्ता संरक्षित गुंडे भी खुले आम विधि विरुद्ध कार्य कर रहे हैं ।इस आफतकाल में सरकारी दमन इतना बढ़ चुका है जिसमें विपक्षी दलों, कार्यकर्ताओं, और नागरिकों व समाज के सदस्यों को निशाना बनाया जा रहा है।
सन 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा जी द्वारा लगाया गया आपातकाल उस वक्त का एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा था, जिसमें उस वक्त नागरिक स्वतंत्रता, मानवाधिकार, और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच संतुलन बनाना आवश्यक था।
अनिल शुक्ला ने कहा कि सिर्फ भाजपा के कार्यकाल वाली सरकारों में ही ज्यादातर कानून बिना केबिनेट की मंजूरी के लिए जाते हैं आज बीजेपी सरकार स्वीकार करे कि नोटबंदी एक बहुत बड़ी भूल थी। स्वीकार करे कि नागरिकता संशोधन कानून एक स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण कानून है। स्वीकार करे कि राफेल सौदा बेईमानी भरा था । स्वीकार करे कि पेगासस स्पाइवेयर का अधिग्रहण और उपयोग अवैध था।
अनिल शुक्ला ने बताया कि बीते 11 वर्ष में देशवासियों ने बीजेपी के कार्यकाल में जो अत्याचार का दंश झेला है आपातकाल उसके सामने कुछ भी नहीं था कृषकों पर लागू 3 कृषि काले कानून को लेकर विरोधी आंदोलन में उनके ऊपर हुए अमानवीय अत्याचारों की कहानी किसी से छिपी नहीं है उनके ऊपर ठंडे पानी की बौछार करना, रबर की गोलियों से उन्हें आहत करना रास्तों में किलों को गाड़ देना ये कौन से लोकतंत्र में होता है पूरे देश ने सरकार द्वारा किसानों के साथ हो रहे जुल्मों को और उन्हें आंदोलन पर दी गई यातनाओं को देखा है और देश का शायद ही कोई आंदोलन हो जिसमें 700 बेकसूर लोगों ने अपने हक की लड़ाई के लिए लोकतांत्रिक आंदोलन कर अपने जान की कुर्बानी दी हो, वहीं असंवेदी सरकार ने उनकी कुर्बानी पर शोक तक व्यक्त नहीं किया। वास्तव मे ये ही प्रताड़ित करने वाला आपातकाल है ।मेरा मानना है कि आज मीसाबंदियों को पेंशन देना बंद कर इन मृतक कृषकों के परिजनों को पेंशन दिया जाना चाहिए।अनिल शुक्ला ने कहा कि बीजेपी मीसा की कहानी पाठ्यक्रम में शामिल करने की पैरवी कर रही है तो ये 3 काले कानून वाले अपने कार्यकाल के अत्याचारों के घटनाक्रम को भी पाठ्यक्रम में शामिल करे और साथ ही ये भी शामिल करे कि बीजेपी ने अपनी मातृसंस्था जनसंघ के मुख्यालय नागपुर में आजादी के बाद 52 वर्षों तक राष्ट्रध्वज क्यों नही फहराया/लहराया?
प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा बिना केबिनेट की मंजूरी के ही नोटबन्दी कर पूरे देश को बैंकों की लाइन में खड़े कर देना भी आफ़तकाल का जीता जागता प्रमाण था।
अनिल शुक्ला ने बताया कि हमें भाजपा के चाल चरित्र और चेहरे को उजागर करने के लिए किसी प्रदर्शनी लगाकर बेनकाब करने की जरूरत नहीं पड़ेगी सिर्फ वाशिंग मशीन के डेमो से ही लोग इनके असल चेहरे से रूबरू हो जाएंगे।वहीं, आपातकाल के विषय को लेकर भाजपा कार्यालय में आयोजित पत्रकार वार्ता में मुख्य वक्ता छत्तीसगढ़ गृहनिर्माण मंडल के अध्यक्ष एवं भाजपा संगठन में बिलासपुर संभाग प्रभारी अनुराग देव सिंह ने कहा कि 25 जून 1975 की आधी रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने आतंरिक अशांति का बहाना बनाकर देश में आपातकाल थोप दिया। यह निर्णय किसी युद्ध या विद्रोह का नहीं, बल्कि चुनाव को रद्द किये जाने और सत्ता जाने की हताशा में लिया गया था। कांग्रेस पार्टी के इस काले अध्याय ने न केवल लोकतान्त्रिक संस्थाओं को रौंदा, बल्कि प्रेस की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की निष्पक्षता और नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचल कर यह स्पष्ट कर दिया कि जब-जब उनकी सत्ता संकट में होती है, वे संविधान और देश की आत्मा को ताक पर रखने से पीछे नहीं हटते। आज 50 वर्ष बाद भी कांग्रेस उसी मानसिकता के साथ चल रही है। मार्च 1971 में लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जितने के बावजूद इंदिरा गाँधी को उनके विपक्षी उम्मीदवार राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनाव की भ्रष्ट आचरण और सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग के आधार पर चुनौती दी थी। देश की अर्थ व्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही थी, जिससे जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा था। बिहार और गुजरात में छात्रों के नेतृत्व में नवनिर्माण आंदोलन खड़ा हो चुका था। 8.मई 1974 को जार्ज फर्नान्डिस के नेतृत्व में ऐतिहासिक हड़ताल ने पूरे देश को जकड़ लिया। आंदोलन को रोकने के लिए 1974 में गुजरात में इंदिरा गाँधी ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया, यही राष्ट्रपति शासन 1975 में लगने वाले आपातकाल की एक शुरुआत थी। इसके साथ ही असंतोष बढ़ने लगा और 1975 में गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। 12 जून 1975 को कोर्ट ने इंदिरा गाँधी को चुनाव में दोषी ठहराया और 6 वर्षों तक किसी भी निर्वाचित पद पर रहने से अयोग्य करार दिया, इसके बाद राजनीतिक अस्थिरता तेजी से बढ़ी, जिससे घबराकर इंदिरा गाँधी ने 25 जून 1975 को आतंरिक अशांति का हवाला देकर राष्ट्रपति से आपातकाल लगवा दिया। रातोंरात प्रेस की बिजली काटी गयी, नेताओं को बंदी बनाया गया और 26 जून की सुबह देश को तानाशाही की सूचना रेडियो के माध्यम से दी गयी। पूरे राष्ट्र को मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। 1975 में आपातकाल की घोषणा कोई राष्ट्रीय संकट का नतीजा नहीं थी, बल्कि यह एक डरी हुई प्रधानमंत्री की सत्ता बचाने की रणनीति थी, जिसे न्यायपालिका से मिली चुनौती से बौखलाकर थोपा गया था। कांग्रेस सरकार ने कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों को बंधक बना कर सत्ता के आगे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। "इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा" जैसे नारे कांग्रेस की उस मानसिकता को दर्शाते थे, जिसके तहत इंदिरा गाँधी ने देश को व्यक्ति पूजा और परिवारवाद की प्रयोगशाला बना दिया था। आपातकाल के दौरान एक परिवार को संविधान से ऊपर रखने वाली कांग्रेस आज भी राहुल व प्रियंका के इर्दगिर्द सिमटी हुई है। 50 वर्ष बाद आज आपातकाल को याद करना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि यह इतिहास की एक घटना मात्र नहीं, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता का प्रमाण है। इंदिरा गाँधी की यही तानाशाही मानसिकता आज के कांग्रेस नेतृत्व में दिखायी देती है।
बहरहाल, आपातकाल को लेकर भाजपा और कांग्रेस की जुबानी जंग का तमाशा देश की जनता देख रही है और समझ भी रही है कि क्या गलत है?और क्या सही है? मगर जवाब अभी नहीं, सही समय पर देगी।