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tahtaknews.com > Blog > छत्तीसगढ़ > मुड़ागांव की तरह क्या पुरंगा को मूड़ पायेगा अडानी का उस्तरा..?

मुड़ागांव की तरह क्या पुरंगा को मूड़ पायेगा अडानी का उस्तरा..?

Pancham Singh Thakur By Pancham Singh Thakur 27 October 2025 6 Min Read
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तहतक न्यूज/रायगढ़, छत्तीसगढ़।
           ” यथा नाम तथा गुण ”  यह बात अडानी पर सटीक बैठ रही है, क्योंकि अडानी कोयला खदान खोलने के लिए अपने नाम के अनुरूप अड़ा हुआ है। आजकल अडानी का नाम सुनते ही लोग समझ जाते हैं कि साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति का चाणक्य अडानी कुछ भी कर सकता है, चाहे अपना विकास हो या प्रकृति का विनाश। लोग कहते हैं, रायगढ़ में जहां भी यह कंपनी जाती है धूमकेतु की तरह विनाश ही करती है। पुसौर के बड़े भंडार हो या फिर तमनार का मुड़ागांव। लोग त्राहिमाम्-त्राहिमाम् कर रहे हैं, वहीं प्रशासन भी अडानी के वशीकरण का शिकार नजर आ रहा है। तभी तो तमाम विरोधों के बावजूद अडानी ने खदान शुरू कर ही दिया।

बताते चलें कि पुरूंगा माइंस  के लिए भी अडानी के हौसले बुलंद है। कुछ दिन पहले जिला प्रशासन ने ग्रामीणों और कंपनी के बीच सुलह जैसी खबरें प्रकाशित कर एक निजी कंपनी का हितैषी होने का संकेत भी दे दिया है। पहली बार ऐसा देखा जा रहा है जब एक निजी कंपनी के लिए जिला प्रशासन नतमस्तक है। जबकि सच्चाई यह है कि माइंस को लेकर अभी भी गतिरोध बरकरार है। कंपनी के प्रलोभनों और ऊपर से आए दबाव के बीच नेता भले ही पीछे हट गए हों पर अपना सबकुछ दांव पर लगाने वाली जनता अड़ी हुई है।

उल्लेखनीय है कि पुरुंगा माइंस के लिए होने वाली जनसुनवाई पर अब भी हंगामा मचा हुआ है। स्थानीय नेताओं से अलग ग्रामीणों ने एकजुट होकर जनसुनवाई के विरोध में आवाज उठाई है। अंडरग्राउंड माइंस होने की वजह से इसके दुष्प्रभाव अलग तरह के हैं। ग्रामीणों तक सही जानकारी नहीं पहुंच रही है। पुरुंगा कोल ब्लॉक का आवंटन अडानी ग्रुप की कंपनी अंबुजा सीमेंट्स को हुआ है। पुरुंगा कोल ब्लॉक में इसलिए अंडरग्राउंड माइनिंग किया जा रहा है क्योंकि स्ट्रिपिंग रेशियो बहुत ज्यादा है। ओपन कास्ट होता तो मुआवजे के अलावा खनन की लागत बहुत ज्यादा होती। 11 नवंबर को इसके लिए जनसुनवाई होनी है। इससे पहले ही ग्रामीण भूमिगत खदान से होने वाले नुकसान के चलते विरोध कर रहे हैं।

पहले इस कोल ब्लॉक का आवंटन छग नेचुरल रिसोर्सेस प्रा.लि. कंपनी को किया गया था। बाद में स्वामित्व अंबुजा सीमेंट को ट्रांसफर किया गया है। छग नेचुरल रिसोर्सेस से अंबुजा सीमेंट को ओनरशिप ट्रांसफर की गई है। छाल तहसील के कोकदार, तेंदुमुड़ी, पुरुंगा और समरसिंघा गांव की 870 हेक्टेयर भूमि इस माइंस के लिए अधिग्रहित की जानी है। सालाना 2.25 मिलियन टन कोयला उत्पादन होना है। चार गांवों में 869 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण होगा। इसमें से 621.33 हे. वन भूमि, 26.89 हे. शासकीय भूमि और 220 हे. निजी भूमि है। चारों गांवों में छोटे-छोटे तालाब, बोरवेल आदि हैं। बीच में प्रशासन की मध्यस्थता से आपस में बातचीत हुई लेकिन आंदोलन दोबारा खड़ा हो गया है। गांवों में लगातार बैठकों का दौर चल रहा है। ग्रामीणों की जमीन इससे प्रभावित नहीं हो रही है। अंडरग्राउंड माइंस के गेट (मुहाने) के पास कुछ जमीन ली जाएगी। मुआवजा का प्रावधान भी नहीं है। ग्रामीणों का कहना है कि भूजल स्रोत और पीएमजीएसवाई सड़कें बर्बाद हो जाएंगी।

सबसे अहम् बात यह है कि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग घर, जमीन-जायदाद को अपने पूर्वजों की निशानी मानते हैं। ऐसे में किसी भी व्यक्ति को उसकी जड़ों से, उसकी पैतृक संपत्ति, पैतृक आवास से बेदखल किया जाए तो विरोध स्वाभाविक है। रायगढ़ जिले में स्थापित छोटी हो या बड़ी, किसी भी कंपनी ने स्थानीय जनता के हितों को ध्यान नहीं दिया और न ही अपने कार्यों से जनता के बीच भरोसा प्राप्त किया है। यही कारण है कि अब किसी भी कंपनी पर लोग भरोसा नहीं कर रहे हैं और वेदांता, जेएसपीएल, जेपीएल, अंबुजा सबकी कोल माइंस का पूरजोर विरोध कर रहे हैं।

किसी का विरोध करने की जितनी व्यवस्था लोकतंत्र ने दी है उसी आधार पर प्रभावित गांव के लोग आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन अडानी कंपनी ने शुरू से ही दमनात्मक रवैया अपनाया। मुड़ागांव के ग्रामीणों ने जब बताया कि जंगल काटने के लिए ग्राम सभा हुई ही नहीं है तो कंपनी फर्जी ग्राम सभा का दस्तावेज तैयार किया। ग्रामीण कटाई और मुआवजा के लिए नहीं माने तो अडानी के गुर्गे ग्रामीण बनकर कंपनी का सर्मथन करने संबंधित विभाग पहुंच गए। जिन बड़े लोगों ने विरोध किया उन्हें अपने हिसाब से सेट कर लिया गया। कई नेताओं और जनप्रतिनिधियों ने विरोध का नाटक किया और अडानी कंपनी ने उन्हें लालच देकर शांत कर दिया। कंपनी के विरोध में मामले चल रहे हैं, परन्तु वरदहस्त प्राप्त कंपनी ही लोकतंत्र की हत्या कर मनमानी करने में व्यस्त है और यही तरीका अब अडानी के गुर्गे पुरुंगा में अपना रहे हैं।
बहरहाल, जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत अभी भी कायम है। आदिवासियों के हित के लिए बनाये गए नियम-कानून केवल पन्नों में नजर आते हैं। जमीनी स्तर पर इसका कोई लाभ नहीं है। वस्तु स्थिति की तह तक जाकर देखें तो यही प्रतीत होता है कि नीति-नियम केवल दिखावे के लिए ही बनाये जाते हैं और इसे तोड़ने के लिए चाँदी के चंद सिक्के ही पर्याप्त हैं।

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